Saturday, June 15, 2019

हमारी असफलताओं का दोषी कौन है ? (Who is the culprit of our failures ?)


   असफलता एक ऐसा शब्द है जिसे कोई भी पसंद नहीं करता, शायद ही कोई होगा जो यह कहे कि उसे असफलता पसंद है तो अब जबकि इस शब्द से हर कोई दूर रहना चाहता है और नहीं चाहता है कि उसके जीवन में असफलता शब्द का प्रवेश किसी भी रूप में हो। लेकिन इस इच्छा के बहुत ही बलवती अर्थात मजबूत होने के बावजूद भी असफलता का स्वाद हम चखते हैं तो इसकी वजह क्या है, क्यों ना चाहते हुए भी हमें असफलता का मुंह देखना पड़ता है ?




आइए आज इसी को हम और आप मिलकर समझने का प्रयास करते हैं।

अगर आपसे यह कहा जाए कि आपको जो भी असफलता मिली है उसमें से ज्यादातर के लिए आप स्वयं जिम्मेदार हैं, तो शायद आपको यह किसी भी रूप में उचित नहीं लगेगा, लेकिन अगर गंभीरता से विचार करेंगे तो पाएंगे कि जितना हमारी सफलता में हमारा योगदान होता है उतना ही असफलता के लिए भी हम ही जिम्मेदार होते हैं । 



अब मान लीजिए आप एक स्टूडेंट है और एक साल भर का समय आपके पास है अपने एग्जाम की तैयारी करने के लिए लेकिन अगर आप यह सोचने लगे कि अरे अभी तो साल भर बाद एग्जाम है अभी से क्यों तैयारी करना और जैसे ही हम यह विचार मन में लाते हैं तो एक निश्चिंतता का भाव मन में बैठ जाता है और जिस प्रकार से जो तैयारी होनी चाहिए थी वो नहीं होती है, देखते ही देखते यह साल भर का समय भी निकल जाता है क्योंकि समय कभी किसी के लिए रुकता नहीं है | अब जब समय कम रह जाता है तो हम बेहतर करने के स्थान पर किसी भी तरह एग्जाम को पास करने में लग जाते हैं ऐसे में जिस एग्जाम में बहुत आसानी के साथ पढ़कर अधिकतम अंक प्राप्त किए जा सकते थे वहीं पर अब हम सिर्फ किसी भी तरह से पास होने की जुगाड़ में लग जाते हैं बहुत बार तो फेल भी होने की संभावना बन जाती है। अब यह तो रही एक स्टूडेंट की बात |


 अब जरा कामकाजी लोग यानी नौकरी पेशा करने वाले लोगों की बात कर ली जाए। अक्सर देखा जाता है कि नौकरी पेशा वाले लोग अपने करियर की ऊंचाई पर पहुंचना तो चाहते हैं लेकिन वे इस ऊंचाई तक पहुंचने में असफल रहते हैं इसकी भी वजह बिल्कुल स्पष्ट है वास्तव में ऊंचाई पर पहुंचने की इच्छा तो रहती है लेकिन उनकी आदतें उसके अनुरूप अर्थात अनुसार नहीं होती है, जैसे कि हम आगे बढ़कर जिम्मेदारी को लेने की जगह पर जिम्मेदारी से बचने की कोशिश करते हैं, जिस समय को अपनी स्किल को बढ़ाने या बेहतर करने में लगाना चाहिए उस वक्त वह व्यर्थ के वार्तालाप या काम में लगाते हैं | 


किसी भी काम को आज के स्थान पर कल पर डालते हैं और कुछ ऐसी आदतें हैं जो आगे बढ़ने के स्थान पर पीछे की ओर ढकेल दी जाती हैं जिसका परिणाम यह होता है कि व्यक्ति में क्षमता होते हुए भी सिर्फ अपनी इन्हीं आदतों और इन्हीं कमजोरियों के चलते असफल रह जाता है।

     तो कहने का तात्पर्य सिर्फ इतना है कि अगर आप असफलता से दूरी बना कर रखना चाहते हैं और जीवन में सिर्फ सफलता का स्वाद चखना चाहते हैं तो अपनी छोटी-छोटी कमजोरियों को दूर करें क्योंकि एक बात हमेशा याद रखें कि आपकी असफलता के लिए आप की कमजोरियां ही जिम्मेदार होती हैं |

Saturday, June 1, 2019

क्या आँखों से देखा और कानो से सुना हमेशा सत्य होता है ? What is seen with eyes and listening to ears is always true ?



अक्सर हमने लोगों  को ऐसा कहते हुए देखा है कि जो अपनी आँखों से देखो और जो अपने कानो से सुनो उसे ही सच मानो | 

अब ये बातें कही तो जाती है लेकिन इन बातों के कहने का तात्पर्य क्या होता है और क्या इसका जो शाब्दिक अर्थ निकलता है हमें सिर्फ उसी पर ध्यान देना चाहिए ?


 आज हम इन्ही बातों को समझने की कोशिश करते है |



दरअसल कुछ हद तक तो इस बात को सही कहा जा सकता है कि जो खुद देखो और खुद सुनो उसे सच मानो परन्तु हमारे जीवन में बहुत से ऐसे क्षण आते है, बहुत सी ऐसी परिस्थीतियां आती है,  बहुत सी ऐसी बातें होती हैं जो हमे ये सोचने पर विवश कर देते हैं कि जो दिख रहा है या जो हमने अपने कानों से सुनाई दे रहा है सिर्फ वो ही सच नहीं है बल्कि सच उससे भिन्न और अलग है |

  आपने देखा होगा की ज्यादातर लोगो के जीवन में सुख और समृद्धि होती है और अपने कार्य क्षेत्र में भी तुलनात्मक रूप से सफल होते है | इनका सामजिक और पारिवारिक जीवन बेहतर होता है लेकिन फिर भी ये लोग अपने जीवन में उतने खुश नही होते बल्कि कई तो तनाव ग्रस्त भी होते हैं जो समय के साथ अवसाद में बदल जाता है, जिसे हम आजकल डिप्रेसन कहते हैं |



अब अगर आप इसकी तह में जाकर देखेगें तो पायेंगे कि इनकी समस्या की जड़ में बहुत सी वजहों में से एक वजह ये भी है कि इन्होने जो देखा और जो सूना, उसे ही सच मान लिया, मसलन इनके किसी साथी ने ये कह दिया की भाई मै तो कम मेहनत में ही इतना कमा लेता हूँ और देखो अब छुट्टी मनाने जा रहा हूँ | अब मित्र ने तो कह दिया और इन्होने अपने कानो से सुन लिया और साथ ही इन्होने ये देख लिया और सोच भी लिया कि एक मै हूँ जो दिन रात काम करता रहता हूँ और फुरसत के एक पल भी नसीब नहीं है वही इसे देखो काम भी कम करता है और मौज भी ज्यादा करता है | अब इनके दिमाग में ये बात दिन रात घुमने लगती है और फिर यही से शुरुआत होती है अवसाद (डिप्रेसन) की | धीरे –धीरे यही अवसाद गंभीर रूप ले लेती है |

 अब अगर आप ध्यान पूर्वक देखें तो आप ये पायेंगे की हम सभी दूसरों के जीवन में हो रही बातों को या फिर दूसरों के जीवन में घट रही घटनाओं को सिर्फ देख सुन कर ही सच मान लेते हैं और अपने मन को बीमार कर लेते है जबकि अगर हम इसके स्थान पर दूसरों के जीवन में घट रही घटनाओं का मुल्यांकन करते तो ये समझ पाते कि कमोबेश (कम या ज्यादा) जैसा आपका जीवन है, जितना सुख दुःख आपके जीवन में है उतना ही दूसरों के जीवन में भी है और लोगों में दूसरों के सामने अपनी समस्याओं को छिपाने के लिए या फिर अपनी उपलब्धियों को, अपनी सफलताओं को बढ़ा –चढ़ा के बताने की आदत होती है जबकि सच ये होता है कि उन्होंने भी अपने जीवन में कुछ पाने के लिए तरह - तरह के परिस्थीतीयों से गुज़ारना पड़ा हैं लेकिन वे इन बातों का जिक्र नहीं करते और लोगों के सामने सिर्फ उन्ही बातों का जिक्र करते हैं जिससे लोगों की नज़र में उनका कद बड़ा हो सके |



तो कहने का तात्पर्य सिर्फ इतना है कि यदि आप कुछ देखें या फिर कुछ सुने तो उस पर आँख बंद कर विश्वास ना करें बल्कि उसे अपनी स्थिति और परिस्थिति की कसौटी पर जरुर कसे और तब आप जो पायेंगे वही सच और वास्तविक होगा | इससे आप उस अवसाद से भी बचंगे जो दूसरों की ओर आँख कान बंद कर देखने और सुनने की वजह से होता है |

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