Monday, December 30, 2019

वास्तव में धर्म का अर्थ क्या है ? (What exactly is the meaning of religion ?)

December 30, 2019 0

हरे कृष्णा 

   यहां धर्म का तात्पर्य धार्मिक मान्यताओं से नहीं है बल्कि हमारे कर्तव्य से हैं | जैसे ही हम किसी पर कोई प्रश्न करते हैं तो सामने वाला अचानक से बोल उठता है पहले अपना धर्म निभाओ, उसके बाद किसी पर सवाल उठाना, अर्थात् वह यह कहना चाहता है कि पहले अपना काम ठीक से करो, फिर दूसरों पर कार्य न करने का आरोप लगाना | 

     हम अक्सर एक दूसरे पर उसके धर्म पर खरे उतरने की मांग करते हैं, बिना यह सोचे कि धर्म वास्तव में क्या है ? उसकी हमारे जीवन में कितनी भूमिका है ? एक व्यक्ति का समाज के लिए क्या धर्म होता है ? एक पति या पत्नी का एक दूसरे के प्रति क्या धर्म होता है या कितनी भूमिका होती है अर्थात् धर्म के कितने स्वरूप हो सकते हैं ? 
  
   वैसे तो धर्म के अनेक पहलू है, लेकिन सबसे खास बात धर्म की यह है कि वह सभी को एक जिम्मेदार बनाने की बात करता है और जो भी इस संसार में है, उसका एक अपना धर्म होता है | उदाहरण के लिए माने तो, पेड़ का धर्म है छाया और फल देना है, उसी तरह नदी का धर्म है जीवन दाई जल बनकर बहते रहना, बादलों का धर्म है जल बरसाना और सूर्य का धर्म है प्रकाश देना | इसी प्रकार मनुष्य का धर्म है उदार रहना, सदाचारी एवं सदव्यवहारी होना | मनुष्य का एकमात्र धर्म है प्राणी मात्र के प्रति दयालुता का भाव और व्यवहार | 
   

    इसीलिए भारत में कर्म से अधिक महत्व सदाचार अर्थात् अच्छे व्यवहार को दिया गया है | सद व्यवहार ही धर्म है क्योंकि सद व्यापार में कर्म, धर्म, नीति और ज्ञान सब शामिल है | धर्म के अनेक रूप एवं प्रकार होते हैं | उसमें से एक रूप को हम कहानी के माध्यम से समझने की कोशिश करते हैं | एक समय कि बात है, एक संत थे जिनका नाम शम्मी मुनि था | सहायता एवं सहनशीलता को उन्होंने अपना धर्म बना रखा था | एक दिन वह नदी में स्नान कर रहे थे, फिर जैसे ही वह नदी से नहा कर निकले तो एक बिच्छू को पानी में बहते पाया, उनके मन में आया कि इस बिच्छू की सहायता करनी चाहिए | उन्होंने बिच्छू को पकड़कर बहती जलधारा से बाहर निकालने के लिए अपना हाथ लगाया ही था कि बिच्छू ने अपने स्वभाव एवं धर्म के अनुसार डंक मारा | मुनि की पकड़ ढीली पड़ गई और बिच्छू फिर से पानी में बहने लगा, मुनि ने फिर प्रयत्न किया, बिच्छू ने डंक मारा, ऐसा कई बार हुआ, बिच्छू डंक मारता रहा और मुनि उसे उबारने का प्रयत्न धैर्य के साथ करते रहे | अंत में आख़िरकार वह सफल हुए | बिच्छू को जीवन दान देकर वह आश्रम की ओर जाने लगे, तब नदी पर उपस्थित लोगों ने प्रश्न किया कि आपने उस डंक मारने वाले बिच्छू की प्राण रक्षा के लिए इतना कष्ट क्यों सहा, उस बिच्छु को मरने देना था | शम्मी मुनि पहले तो मुस्कुराएं फिर बहुत ही शांत स्वभाव से बोले, यदि बिच्छू अपने डंक मारने के धर्म का त्याग नहीं कर रहा, तो मै सहायता एवं सहनशीलता के अपने धर्म को कैसे त्याग दूं | अपने धर्म पर चलते हुए कष्ट सहना ही तो तप एवं जीवन है | इतना कह कर वो चले गये |

    व्यास मुनि ने एक बहुत ही उत्तम बात कही है  "हे मनुष्यों, संक्षेप में हम तुम्हें धर्म का मर्म बताते हैं, परोपकार करना ही पुण्य कर्म है और धर्म है, और परपीड़ा ही पाप अर्थात अधर्म है। "

तो कहने का तात्पर्य सिर्फ इतना है कि पुण्य कर्म करते रहना ही सच्चा धर्म है और आपके कारण किसी को दुःख न पहुचे इस बात का हमेशा स्मरण रखना चाहिए |

Saturday, June 15, 2019

हमारी असफलताओं का दोषी कौन है ? (Who is the culprit of our failures ?)


   असफलता एक ऐसा शब्द है जिसे कोई भी पसंद नहीं करता, शायद ही कोई होगा जो यह कहे कि उसे असफलता पसंद है तो अब जबकि इस शब्द से हर कोई दूर रहना चाहता है और नहीं चाहता है कि उसके जीवन में असफलता शब्द का प्रवेश किसी भी रूप में हो। लेकिन इस इच्छा के बहुत ही बलवती अर्थात मजबूत होने के बावजूद भी असफलता का स्वाद हम चखते हैं तो इसकी वजह क्या है, क्यों ना चाहते हुए भी हमें असफलता का मुंह देखना पड़ता है ?




आइए आज इसी को हम और आप मिलकर समझने का प्रयास करते हैं।

अगर आपसे यह कहा जाए कि आपको जो भी असफलता मिली है उसमें से ज्यादातर के लिए आप स्वयं जिम्मेदार हैं, तो शायद आपको यह किसी भी रूप में उचित नहीं लगेगा, लेकिन अगर गंभीरता से विचार करेंगे तो पाएंगे कि जितना हमारी सफलता में हमारा योगदान होता है उतना ही असफलता के लिए भी हम ही जिम्मेदार होते हैं । 



अब मान लीजिए आप एक स्टूडेंट है और एक साल भर का समय आपके पास है अपने एग्जाम की तैयारी करने के लिए लेकिन अगर आप यह सोचने लगे कि अरे अभी तो साल भर बाद एग्जाम है अभी से क्यों तैयारी करना और जैसे ही हम यह विचार मन में लाते हैं तो एक निश्चिंतता का भाव मन में बैठ जाता है और जिस प्रकार से जो तैयारी होनी चाहिए थी वो नहीं होती है, देखते ही देखते यह साल भर का समय भी निकल जाता है क्योंकि समय कभी किसी के लिए रुकता नहीं है | अब जब समय कम रह जाता है तो हम बेहतर करने के स्थान पर किसी भी तरह एग्जाम को पास करने में लग जाते हैं ऐसे में जिस एग्जाम में बहुत आसानी के साथ पढ़कर अधिकतम अंक प्राप्त किए जा सकते थे वहीं पर अब हम सिर्फ किसी भी तरह से पास होने की जुगाड़ में लग जाते हैं बहुत बार तो फेल भी होने की संभावना बन जाती है। अब यह तो रही एक स्टूडेंट की बात |


 अब जरा कामकाजी लोग यानी नौकरी पेशा करने वाले लोगों की बात कर ली जाए। अक्सर देखा जाता है कि नौकरी पेशा वाले लोग अपने करियर की ऊंचाई पर पहुंचना तो चाहते हैं लेकिन वे इस ऊंचाई तक पहुंचने में असफल रहते हैं इसकी भी वजह बिल्कुल स्पष्ट है वास्तव में ऊंचाई पर पहुंचने की इच्छा तो रहती है लेकिन उनकी आदतें उसके अनुरूप अर्थात अनुसार नहीं होती है, जैसे कि हम आगे बढ़कर जिम्मेदारी को लेने की जगह पर जिम्मेदारी से बचने की कोशिश करते हैं, जिस समय को अपनी स्किल को बढ़ाने या बेहतर करने में लगाना चाहिए उस वक्त वह व्यर्थ के वार्तालाप या काम में लगाते हैं | 


किसी भी काम को आज के स्थान पर कल पर डालते हैं और कुछ ऐसी आदतें हैं जो आगे बढ़ने के स्थान पर पीछे की ओर ढकेल दी जाती हैं जिसका परिणाम यह होता है कि व्यक्ति में क्षमता होते हुए भी सिर्फ अपनी इन्हीं आदतों और इन्हीं कमजोरियों के चलते असफल रह जाता है।

     तो कहने का तात्पर्य सिर्फ इतना है कि अगर आप असफलता से दूरी बना कर रखना चाहते हैं और जीवन में सिर्फ सफलता का स्वाद चखना चाहते हैं तो अपनी छोटी-छोटी कमजोरियों को दूर करें क्योंकि एक बात हमेशा याद रखें कि आपकी असफलता के लिए आप की कमजोरियां ही जिम्मेदार होती हैं |

Saturday, June 1, 2019

क्या आँखों से देखा और कानो से सुना हमेशा सत्य होता है ? What is seen with eyes and listening to ears is always true ?



अक्सर हमने लोगों  को ऐसा कहते हुए देखा है कि जो अपनी आँखों से देखो और जो अपने कानो से सुनो उसे ही सच मानो | 

अब ये बातें कही तो जाती है लेकिन इन बातों के कहने का तात्पर्य क्या होता है और क्या इसका जो शाब्दिक अर्थ निकलता है हमें सिर्फ उसी पर ध्यान देना चाहिए ?


 आज हम इन्ही बातों को समझने की कोशिश करते है |



दरअसल कुछ हद तक तो इस बात को सही कहा जा सकता है कि जो खुद देखो और खुद सुनो उसे सच मानो परन्तु हमारे जीवन में बहुत से ऐसे क्षण आते है, बहुत सी ऐसी परिस्थीतियां आती है,  बहुत सी ऐसी बातें होती हैं जो हमे ये सोचने पर विवश कर देते हैं कि जो दिख रहा है या जो हमने अपने कानों से सुनाई दे रहा है सिर्फ वो ही सच नहीं है बल्कि सच उससे भिन्न और अलग है |

  आपने देखा होगा की ज्यादातर लोगो के जीवन में सुख और समृद्धि होती है और अपने कार्य क्षेत्र में भी तुलनात्मक रूप से सफल होते है | इनका सामजिक और पारिवारिक जीवन बेहतर होता है लेकिन फिर भी ये लोग अपने जीवन में उतने खुश नही होते बल्कि कई तो तनाव ग्रस्त भी होते हैं जो समय के साथ अवसाद में बदल जाता है, जिसे हम आजकल डिप्रेसन कहते हैं |



अब अगर आप इसकी तह में जाकर देखेगें तो पायेंगे कि इनकी समस्या की जड़ में बहुत सी वजहों में से एक वजह ये भी है कि इन्होने जो देखा और जो सूना, उसे ही सच मान लिया, मसलन इनके किसी साथी ने ये कह दिया की भाई मै तो कम मेहनत में ही इतना कमा लेता हूँ और देखो अब छुट्टी मनाने जा रहा हूँ | अब मित्र ने तो कह दिया और इन्होने अपने कानो से सुन लिया और साथ ही इन्होने ये देख लिया और सोच भी लिया कि एक मै हूँ जो दिन रात काम करता रहता हूँ और फुरसत के एक पल भी नसीब नहीं है वही इसे देखो काम भी कम करता है और मौज भी ज्यादा करता है | अब इनके दिमाग में ये बात दिन रात घुमने लगती है और फिर यही से शुरुआत होती है अवसाद (डिप्रेसन) की | धीरे –धीरे यही अवसाद गंभीर रूप ले लेती है |

 अब अगर आप ध्यान पूर्वक देखें तो आप ये पायेंगे की हम सभी दूसरों के जीवन में हो रही बातों को या फिर दूसरों के जीवन में घट रही घटनाओं को सिर्फ देख सुन कर ही सच मान लेते हैं और अपने मन को बीमार कर लेते है जबकि अगर हम इसके स्थान पर दूसरों के जीवन में घट रही घटनाओं का मुल्यांकन करते तो ये समझ पाते कि कमोबेश (कम या ज्यादा) जैसा आपका जीवन है, जितना सुख दुःख आपके जीवन में है उतना ही दूसरों के जीवन में भी है और लोगों में दूसरों के सामने अपनी समस्याओं को छिपाने के लिए या फिर अपनी उपलब्धियों को, अपनी सफलताओं को बढ़ा –चढ़ा के बताने की आदत होती है जबकि सच ये होता है कि उन्होंने भी अपने जीवन में कुछ पाने के लिए तरह - तरह के परिस्थीतीयों से गुज़ारना पड़ा हैं लेकिन वे इन बातों का जिक्र नहीं करते और लोगों के सामने सिर्फ उन्ही बातों का जिक्र करते हैं जिससे लोगों की नज़र में उनका कद बड़ा हो सके |



तो कहने का तात्पर्य सिर्फ इतना है कि यदि आप कुछ देखें या फिर कुछ सुने तो उस पर आँख बंद कर विश्वास ना करें बल्कि उसे अपनी स्थिति और परिस्थिति की कसौटी पर जरुर कसे और तब आप जो पायेंगे वही सच और वास्तविक होगा | इससे आप उस अवसाद से भी बचंगे जो दूसरों की ओर आँख कान बंद कर देखने और सुनने की वजह से होता है |

Wednesday, May 22, 2019

क्या हमें सफलता के लिए किसी की नकल करनी चाहिए ? (Should we duplicate someone for success ?)


    हमे अमुक व्यक्ति की तरह बनना है या फिर उस अमुक व्यक्ति ने जैसा किया वैसा करना है या उसकी तरह ही दिखना है इत्यादी इत्यादि ... | ये बातें लगभग हम सभी लोगों ने सुनी है या फिर लोगों को ऐसा कहते देखा है |

    ऐसी बातें जब हम सुनते हैं तो हमारे मन मस्तिष्क में ये विचार आता है कि क्या दुसरे जैसा बनने और करने में ही सच्ची सफलता है  ? क्या यही हमारे जीवन का मकसद है ? और अगर ऐसा नहीं है तो फिर लोग दूसरों के जैसे होने या बनने की बात क्यों करते है |




तो चलिए आज हम आपके साथ इसी विषय पर चर्चा करते है |


    एक व्यक्ति जो अपने जीवन में कुछ हासिल करना चाहता है, किसी मजिल तक पहुचना चाहता है तो उसे एक प्रेरणा की जरुरत होती है, उसे मार्ग दर्शन की जरुरत होती है और इसके लिए वह अपने से ज्यादा सफल और योग्य व्यक्तियों की तरफ देखता है ताकि वह उनसे कुछ सीख सके, अपनी मजिल की ओर जाने वाले रास्ते के बारे में कुछ जानकारी प्राप्त कर सके |



   अब यहाँ तो ठीक है कि किसी योग्य व्यक्ति से कुछ सीखने और प्रेरित होने में कुछ भी गलत नहीं है लेकिन समस्या तब शुरू हो जाती है जब व्यक्ति प्रेरित होने के स्थान पर नक़ल करने लगता है और हुबहू दुसरे के जैसा बनने में अपनी पूरी उर्जा लगा देता है | व्यक्ति यह भूल जाता है कि उस सफल व्यक्ति की जिसकी वो नक़ल कर रहा है, उसकी प्रतिभा , उसके गुण, उसके कार्य करने का तरीका, सबकुछ अगल हो सकता है | व्यक्ति यहाँ पर सिर्फ परिणाम देखता है और बाकी अन्य बातों पर उसका ध्यान ही नहीं जाता, और यही से समस्या भी शुरू होती है | व्यक्ति अपने अन्दर की प्रतिभा को नकारने लग जाता है और समय बीतने के साथ तमाम प्रयासों के बावजूद जब आशातीत सफलता नहीं मिलती है तो व्यक्ति हीन भावना का शिकार हो जाता है उसे लगने लगता है कि उसमे वो बात ही नहीं है वो क्षमता ही नहीं है कि वह अपने जीवन में कुछ अर्जित कर सके और यही से वो व्यक्ति, जो अपने जीवन में बहुत कुछ कर सकता था वो पिछड़ने लगता है और एक समय आता है जब वो निराशा का शिकार हो जाता है और नकारात्मकता विचार उसके व्यक्तित्व पर हावी होने लगती है |


    अब अगर इसके स्थान पर वो ही व्यक्ति उस व्यक्ति से प्रेरित भले ही जरुर होता लेकिन साथ ही अपनी प्रतिभा के हिसाब से सफलता की अपनी रणनीति बनाता, नक़ल की जगह अपनी अकल लगाता तो उसे जो भी हासिल होता वो उसकी अपनी सूझ बुझ और समझ का परिणाम होता | इसके अलावा चूंकि ये सफलता उसे अपनी अकल लगाने की वजह से मिला होता है तो इसकी वजह से उसे जो ख़ुशी मिलती वो अदभुत होती |


   अंत में यही कहेंगे कि दूसरों से प्रेरणा अवश्य ग्रहण करें परन्तु दुसरे की नक़ल ना करें | अपनी मंजिल का  रास्ता अपनी समझ और अपनी प्रतिभा से स्वयं तय करें | यकीन करें आपकी मजिल तक का ये सफ़र न सिर्फ आपके लिए बल्कि दूसरों के लिए भी सीख देने वाला होगा और आप दूसरों के लिए एक मिसाल बन जायेंगे |

Friday, May 17, 2019

मन को नियंत्रण कैसे और क्यों रखना चाहिए ? (How and why should I keep control on Mind ?)

हम आज आपको एक युवक की कहानी सुनाते हैं | ये युवक दुसरे अन्य  युवक जैसा ही था उसके भी सपने थे, जीवन में कुछ पाने कुछ करने की चाह भी थी और  योग्यता भी थी |




लेकिन उसके सपने सिर्फ सपने ही बन कर रह गये | उसे जीवन में कुछ भी प्राप्त नहीं हुआ और देखते ही देखते समय बीतता गया और वो युवक एक दिन उम्र के उस पड़ाव में  पहुच गया, जहाँ पहुंच कर व्यक्ति कुछ करने के लिए के उतना उत्सुक नहीं रह जाता है जितना वो युवावस्था में  होता है | 


अब प्रश्न ये उठता है कि आखिर उस युवक के साथ ऐसा क्या हुआ था जो वो अपने जीवन में कुछ नहीं कर पाया ? 



तो इसकी वजह थी उस युवक का मन...

अब आप को ये बड़ा ही अजीब लग रहा होगा की मन की वजह से कोई कैसे अपने जीवन में पिछड़ सकता है |तो चलिए आपको विस्तार से बताते है, दरअसल युवक का अपने मन पर नियंत्रण ही नहीं था जब उसे पढाई करनी होती थी तो उस वक़्त उसके मन से ये आवाज आती थी कि अभी दोस्तों के साथ थोड़े गप्पें मारे और वो अपने मन की सुन लेता था, नतीजा यह निकला कि उसकी पढाई छुट जाती थी और परिणाम अच्छे नहीं आते थे |




इसी प्रकार से उसका मन हमेशा मौज मस्ती करने का करता रहा और वह मन के अनुसार चलता रहा जबकि उस समय उसे सिर्फ अपने करियर पर ध्यान देना चाहिए था |
ऐसे ही वह हर काम अपने मन के अनुसार करता रहा और उसका मन था कि हमेशा उल्टा चलता था | वैसे इसमें मन की भी गलती नहीं है मन की तो फितरत ही है कि वो इंसान को अपने अनुसार चलाना चाहता है | जैसे अगर आप कोई काम कर रहे होते हैं तो उस वक़्त आपका मन आपसे ये कहेगा काम छोडो आराम करो, लेकिन इंसान अपने बुद्धि और विवेक का प्रयोग करके मन को अपने नियंत्रण में रख सकता है और यदि वह मन की सुने जरुर परन्तु करे वही है जो उसे उचित लगता हो ना की मन के अनुसार चलने लगे और यही काम वो युवक नहीं कर पाया जिसका फल उसे भुगतना पड़ा | और ये कहानी किसी एक युवक की नही है, ये कहानी आज के दौर में हर उस युवक की है जो करना तो बहुत कुछ चाहते हैं लेकिन वो बुद्धि से ज्यादा मन की मानते हैं और करते है | मन में उठी हर बात को बुद्धि के तराजू पर रख कर नहीं तौलते हैं |




तो आज हमे इस युवक की कहानी से ये शिक्षा मिलती है कि मन को नियंत्रण कैसे और क्यों रखना चाहिए | मन की बात को सुने जरुर, परन्तु मन की करने से पहले अपने बुद्धि और विवेक का प्रयोग करें और जो बुद्धि कहे उसे ही करने की कोशिश करें तभी आप अपने जीवन में अपनी आशा और उम्मीद के अनुरूप सफलता प्राप्त कर सकेंगे | 

भरोसे का वास्तविक अर्थ क्या है ? (What is the real meaning of trust ?)

भरोसा, विश्वास ये ऐसे शब्द हैं, जिन्हें हम अक्सर सुनते रहते हैं और साथ ही सुनते रहते हैं भरोसे और विश्वास से जुडी अनगिनत बातें...
पर क्या हम सभी इन शब्दों के मतलब समझते है, बिलकुल समझते है, लेकिन फिर भी इन शब्दों के को लेकर हमारे मन में अनेक प्रश्न उठते ही रहते हैं तो चलिए आज तलाशते हैं मन में इन शब्दों को लेकर उठते सवालों के जवाब !!!

तो पहला सवाल है हमारा कि ये भरोसा है क्या ?

इसका जवाब है भरोसा या फिर विश्वास महज एक भावना है जो हमें आश्वस्ति देती है जैसे एक पिता जब अपने बेटे के बारे में कहता है कि मेरा बेटा मेरे से बिना पूछे कुछ कर ही नहीं सकता और अगर लोग इस पिता से उसके बेटे के बारे में कुछ कहना भी चाहे तो वो सुनना नही चाहेगा |
वजह – वजह सिर्फ इतनी ही है की वो अपने बेटे को लेकर आश्वस्त है और यही भाव भरोसे से जुडी दूसरी तमाम बातों में आसानी से दिखाई देगी तो ये तो हुआ की भरोसा है क्या ….



अब प्रश्न ये आता है कि ये भरोसे की भावना को विकसित कैसे किया जाये ?

तो जितना कठिन ये प्रश्न है उतना ही सरल इसका जवाब है, ये भावना आपको खुद ही विकसित करनी होती है जैसे मान लीजिये कि अगर आपके सामने एक विशाल पर्वत है और आपका प्रेम इस पर्वत के दूसरी तरफ आपसे मिलने के लिए बेकरार है तब आपके सामने दो ही रास्ते हैं या तो आप अपने उस प्रेम को भूल जायें, छोड़ दे उसे, या फिर उस पर्वत को लांघ जाय और जाकर अपने प्रेम को पा ले | ये पर्वत क्या है.. ये मेरे रास्ते में आएगा … मै इस पर्वत को लाघं जाऊँगा….. मुझे मेरे प्रेम से कोई भी पर्वत दूर नहीं कर सकता, बस यही भाव, यही सोच ही विश्वास है, भरोसा है, कुछ कर जाने की चाह है और ये आता है आपकी सोच से यानी आप कितना सकारात्मक सोचते है, कितना पॉजिटिव है अपने जीवन को लेकर और अपने आने वाले कल को लेकर |




तो मूल बात यही है कि यदि सोच सकारात्मक रखें तो खुद पर भरोसा अपने आप ही उत्पन्न हो जाएगा |



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